Sunday, June 3, 2012

सुधियों के अमलतास: ओ हरजाई,मानसून!

सुधियों के अमलतास: ओ हरजाई,मानसून!: न्यूटन के ज़माने में सेब ऊपर से नीचे गिरा करते थे.आज भी स्थिति वैसी ही है.कभी हवाई जहाज के पहिये आसमान से गिर पड़ते हैं.कभी पूरा का पूरा जहाज...

Wednesday, May 23, 2012

मुखौटों के यहाँ कारोबारी से लगे हैं लोग भी

मुखौटों के यहाँ कारोबारी से लगे हैं लोग भी
अब यहाँ पर इश्तिहारी से लगे हैं लोग भी

इस शहर के नाम कर दें फिर कोई वीरानियाँ
बेगार की अब पल्लेदारी से लगे हैं लोग भी

टूटने औ बिखरने का अब न कोई ज़िक्र छेड़ो
मुफलिसों की गमगुसारी से लगे हैं लोग भी

कौन देगा साथ,हम किससे यहाँ उम्मीद बांधें
ज़ुल्म की इक थानेदारी से लगे हैं लोग भी

भूख की इन बस्तियों में प्यास लेकर जी रहे
झूठे वादों की ख़ुमारी से लगे हैं लोग भी

जिन पे था दारोमदार,आज के इस दौर में
भिखारियों की रेज़गारी से लगे हैं लोग भी

देश के हालात पर फिर कौन रोयेगा 'श्रवण'
अब यहाँ पर गैरज़िम्मेदारी से लगे हैं लोग भी
***श्रवण कुमार उर्मलिया तिवारी***

Thursday, March 29, 2012

मेरे कन्धों से लग कर जो कभी रोता था ज़ार-ज़ार

बुतों को तू अगर छू ले,तो उनमें जान आ जाए
न कर मुझसे यही उम्मीद, कोई बुत नहीं हूँ मैं

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मेरी मुश्किल कि मैं ख़ुद को छिपाकर रख नहीं सकता
तेरी फ़ितरत किसी को मंच तक आने नहीं देती

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मेरे कन्धों से लग कर जो कभी रोता था ज़ार-ज़ार
वही करने लगा है अब मेरे रोने का, यारो, इंतज़ार

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खिजाओं ने बहारों को किराये पर लिया होगा
तभी तो सारे मौसम एक से मालूम होते हैं

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'' मेरे ज़ख्मों पे छिड़कते हैं नमक जी भर कर
और कहते हैं कि नमक में आयोडीन भी है.''
हसीनों पर फ़िदा होना हो गर,दरियाफ्त कर लेना
कि वे बस ज़िस्म हैं या दिल भी है उनके बदन में

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मेरे जज़्बात को तमग़े मिले रुसवाइयों के
हम अपने दर्द को ख़ुशियों की सज़ा दे न सके

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उनके ओठों से हंसी के घने फुहारे फूटते हैं,
जैसे रुक-रुक कर पानी के फव्वारे फूटते हैं.

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''ऐ नाज़नीनों, अपनी निगाहों से जुबां का काम करो,
और अपनी कैंची-सी जीभ से कहो कि आराम करो.''

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ज़िन्दगी ज़ंजीर में जकड़ी हुई जंजाल-सी
जाल को काटो मगर ये ज़िन्दगी कटती नहीं

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किस तरह अब कोई उनका दिल चुराए,दोस्तो

(क) किस तरह अब कोई उनका दिल चुराए,दोस्तो
रख दिया है दिल सभी ने,बैंक के उन लाकरों में
(ख) किडनियों के दाम अच्छे मिल रहे हैं, साथियों
कौन अहमक फिर यहाँ पर दिल चुराने जायेगा
(ग) दिल की नीलामी में यूँ तो बोलियाँ थीं लाख की
ले गया ज़ालिम मेरा दिल कौड़ियों के मोल पर
(घ) मैंने पूछा किस तरह तोड़ोगे मेरा दिल,सनम
हंसके वो मुझको नया बेलन दिखाने लग गए
(च) दिल को बच्चा समझकर वे ले गए थे साथ में
बाल-मज़दूरी का ज़ुर्म उन पे साबित हो चुका है
***श्रवण कुमार उर्मलिया तिवारी***

Wednesday, March 14, 2012

सभ्यता करने लगी है पत्थरों के कारोबार...

पाषाण-युग के नाम भेजो,दोस्तो,यह समाचार
सभ्यता करने लगी है पत्थरों के कारोबार

बुतशिकन लिखने लगे हैं बुतपरस्ती पर किताबें
ज़िन्दगी के नाम मिलते दर्द के शुभ समाचार

पीढियां अब लिख न पाएंगी कभी इतिहास अपना
हो गए रेहन समय को, जिन पे था दारोमदार

पत्थरों के शहर में मिलती नहीं हैं मंज़िलें
चाहतों के नाम लिक्खे भटकनों के गमगुसार

मन के मंदिर में जिन्हें हम देवता कहते रहे
पत्थरों की कौम को करते रहे वो शर्मशार

***श्रवण कुमार उर्मलिया तिवारी***

Monday, March 5, 2012

जब भी गुज़रा हूँ यहां मैं घनी तनहाइयों से
मेरा यह दर्द ही हमदर्द बनके साथ रहा.

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फिर तुम्हारी याद आयी-
पोर-पोर महके अमराई,
मन आंगन में
कूके कोयल
चहक रही तनहाई...
फिर तुम्हारी याद आयी

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